अरे! ये क्या.. आपको मना किया था न दहलीज पर बैठने को और आप बैठ गए, बैठे तो बैठे आप हमारी दहलीज में बैठ कर खाना खा रहे है... भूलिये मत आप... हम भाईजान लोग है
ऐसी फटकार लगाते हुए, मेरे पापा ने घर की दहलीज पर बैठे एक दलित मजदूर को बड़ा जोरदार डांट लगाई.. जिससे मैं सहम गया..
दरअसल बात यही कुछ आठ-नौ साल पहले की है लगभग 2010-2011की.. तब मैं कक्षा आठवीं में पढ़ता था.. हमारा घर उस समय बन चुका था लेकिन हम गांव में रहते थे तो गर्मियों के लिए कुछ बड़े कमरे(अटारी वाले) कच्चे ही छोड़ दिये थे, जिससे हम और सभी मुहल्ले वाले गर्मियों की तेज दोपहरी में बैठके में बैठकर गर्मियों की छुट्टियों का मजा ले सके,
अभी गर्मियो की छुट्टी खत्म हुई थी कि बरसात का मौसम शुरू हो चुका था तो कच्चे कमरों में छप्पर की मरम्मत के लिए काम चल रहा था, तब हमारे घर मे हमेशा से मजदूरी करने वाले जो कच्चे घरों की मरम्मत का काम जानते थे जो अपने धर्म मे हिन्दू लेकिन हरिजन(दलित समुदाय) से थे।
जिन्हें हम बचपन से कंधी चाचा कहकर बुलाते थे, कंधी चाचा का स्वभाव भी बहुत ही शांत और विनम्र था, वो हमें हमेशा अपने बच्चों की तरह ही मानते थे... तो हमारी उनसे अच्छी बनती थी।
जब एक दिन हमारे घर के कच्चे कमरों के छप्पर में काम चल रहा था तो उस दिन कंधी चाचा के पिता जी भी काम मे आ गए जिनकी उम्र बहुत अधिक थी लेकिन किसान परिवार से होने के चलते उम्र में या बुढ़ापे में आने वाली कमजोरी उनसे कुछ हद तक दूर ही थी..
कंधी चाचा और उनके पिता जी को काम करते हुए दोपहर हो चली थी धूप अधिक होने के चलते उन्होंने अपना काम दोपहर में रोक कर खाना खाने के लिए छप्पर से नीचे आ गए कि खाना खाकर कुछ देर आराम कर के जब धूप कम होगी तो दोबारा काम शुरू कर देंगे.. कंधी चाचा तो खाना खाने के लिए घर चले गए लेकिन मेरे पापा ने उनके पिता जी को खाना खाने के लिए रोका, पहले तो वह नही रुके लेकिन बाद में धूप में आने-जाने और परेशान होने से बचाने के लिए उन्हें पापा की बात माननी पड़ी।
पापा के कहने पर मैंने उन्हें किचन से खाना लाकर दिया और वह खाने लगे, लेकिन पापा ने उनसे पहले ही बता देने को कहा था कि वह खाना आराम से , सुकून के साथ खाएं... मैंने उनसे बोला भी.. मैं इतना बोलकर और खाना देकर T.V. देखने दूसरे कमरे में चला गया,तभी पापा की तेज आवाज आई और मैं पापा के पास गया तो पापा कंधी चाचा के पिता जी को जोरों से डांट रहे थे क्यों कि वह दहलीज(दरवाजे के बिल्कुल बाहर) में बैठे खाना खा रहे थे,।
वह दलित समुदाय से है और दरवाजे में बैठने और खाना खाने में जहाँ उनको कोई इजाजत नही देता उसके लिए उन्हें इतना अपमान सहना पड़ रहा है तब मैं थोड़ा अपने पापा से मन ही मन मे कुंठित(घृणा)की भावना से देखने लगा।
लेकिन कुछ देर में पता चला बात ही इसके पूर्णतः विपरीत थी,
पापा का कहना था कि आप समाज में किसी भी समुदाय से हो, हमारे लिए मायने नही रखता, समाज मे अन्य धर्मों में आपके साथ कैसा भी व्यवहार हो लेकिन यह व्यवहार हमारे धर्म मे नही है कि आप हमारे घर आए और हम आपको खाना खिलाए तो आप अन्य स्थानों की तरह ही यहाँ भी दहलीज में, ज़मीन में बैठ कर खाना खाएं, नही यह हमें मंज़ूर नही.. इससे हमें गुनाह मिलेगा, यह हमारे धर्म मे अनैतिक है.. जब हमने आपको बताया कि आराम से तख्त में बैठ कर जहां सभी बैठते है वही बैठ कर खाना खाइये साथ ही यदि किसी चीज की कमी हो तो बताइए..
लेकिन आप हमारी बात सुन ही नही रहे.. यदि कोई अन्य व्यक्ति हमारे घर आ गया और आपको ऐसे जमीन में बैठ कर खाना खाते हुए देख लिया तो लोग क्या कहेंगे.. की ये जो भाईजान इस्लाम और दीन की बाते करते है उन्ही के घर मे एक व्यक्ति जिसे हीन जाति का माना जाता है वह जमीन में बैठा है और स्वयं ऊपर जगह में.... नही यह सही नही... इससे हमारी और हमारे इस्लाम की बदनामी होगी।
आप कहीं या पूरे गांव में कैसे भी रहे लेकिन हमारे घर मे ऐसी असमानता अमान्य है आप आकर साथ बैठिए..और साथ ही मेरी बात का बुरा लगा हो तो माफ करिए..
पापा की बातें सुनकर कंधी चाचा के पिता जी ने खाना खाया और हमे आशीर्वाद देते हुए भारी पलकों से अपने काम मे वापस चले गए..
पूरी बात का मतलब यही है कि जातिगत भेदभाव से किसी को कोई फायदा नही खास तौर पर ऐसे लोगों से जो हमारे लिए खुद धूप में रहकर हमारी घरों की छाया बनाते है और फिर कुछ लोग अपनी झूठी शान के लिए उन्हें ही उनके द्वारा बनाई गई छांव में आने नही देते.. पापा की उस दिन की बात से मैं भी सामाजिक असमानता को अपने से दूर रखने का प्रयास करने लगा और लगभग सफल रहा...
और हाँ कंधी चाचा मात्र जन्म से हीन जाति में थे लेकिन आज 2020 की तारीख तक उनके द्वारा कोई भी ऐसा कर्म नही किया गया जो उन्हें दूसरों से सामाजिक रूप से अलग करे..
इतनी घटना घटने के बाद मैंने उन दादा से पूछा.. आपसे बोला था फिर भी आप नीचे क्यों बैठे...तब उन्होंने थोड़ा दुखी मन से बताया कि समाज मे हम अछूते है क्यों कि हमारा जन्म अछूतों में हुआ है हम कोई भी काम कर ले.. कैसा भी जीवन जी ले.. लेकिन कुछ लोग हमें पसन्द नही करते..
बोलते है.. कि अब तो हमारी आदत ही हो चुकी है ऐसे दूर रहने की-अगर किसी के पास जाए जो हमसे ऊंची जात का है तो अधर्म लगता है..
✍इमरान
Wait_for_next
https://youtu.be/I0V5aUE1aJo
पिछली कहानी..https://chandlatosatna.blogspot.com/2020/02/2.html
मानसिकता में नकारात्मक ज़हर
ऐसी फटकार लगाते हुए, मेरे पापा ने घर की दहलीज पर बैठे एक दलित मजदूर को बड़ा जोरदार डांट लगाई.. जिससे मैं सहम गया..
दरअसल बात यही कुछ आठ-नौ साल पहले की है लगभग 2010-2011की.. तब मैं कक्षा आठवीं में पढ़ता था.. हमारा घर उस समय बन चुका था लेकिन हम गांव में रहते थे तो गर्मियों के लिए कुछ बड़े कमरे(अटारी वाले) कच्चे ही छोड़ दिये थे, जिससे हम और सभी मुहल्ले वाले गर्मियों की तेज दोपहरी में बैठके में बैठकर गर्मियों की छुट्टियों का मजा ले सके,
अभी गर्मियो की छुट्टी खत्म हुई थी कि बरसात का मौसम शुरू हो चुका था तो कच्चे कमरों में छप्पर की मरम्मत के लिए काम चल रहा था, तब हमारे घर मे हमेशा से मजदूरी करने वाले जो कच्चे घरों की मरम्मत का काम जानते थे जो अपने धर्म मे हिन्दू लेकिन हरिजन(दलित समुदाय) से थे।
जिन्हें हम बचपन से कंधी चाचा कहकर बुलाते थे, कंधी चाचा का स्वभाव भी बहुत ही शांत और विनम्र था, वो हमें हमेशा अपने बच्चों की तरह ही मानते थे... तो हमारी उनसे अच्छी बनती थी।
जब एक दिन हमारे घर के कच्चे कमरों के छप्पर में काम चल रहा था तो उस दिन कंधी चाचा के पिता जी भी काम मे आ गए जिनकी उम्र बहुत अधिक थी लेकिन किसान परिवार से होने के चलते उम्र में या बुढ़ापे में आने वाली कमजोरी उनसे कुछ हद तक दूर ही थी..
कंधी चाचा और उनके पिता जी को काम करते हुए दोपहर हो चली थी धूप अधिक होने के चलते उन्होंने अपना काम दोपहर में रोक कर खाना खाने के लिए छप्पर से नीचे आ गए कि खाना खाकर कुछ देर आराम कर के जब धूप कम होगी तो दोबारा काम शुरू कर देंगे.. कंधी चाचा तो खाना खाने के लिए घर चले गए लेकिन मेरे पापा ने उनके पिता जी को खाना खाने के लिए रोका, पहले तो वह नही रुके लेकिन बाद में धूप में आने-जाने और परेशान होने से बचाने के लिए उन्हें पापा की बात माननी पड़ी।
पापा के कहने पर मैंने उन्हें किचन से खाना लाकर दिया और वह खाने लगे, लेकिन पापा ने उनसे पहले ही बता देने को कहा था कि वह खाना आराम से , सुकून के साथ खाएं... मैंने उनसे बोला भी.. मैं इतना बोलकर और खाना देकर T.V. देखने दूसरे कमरे में चला गया,तभी पापा की तेज आवाज आई और मैं पापा के पास गया तो पापा कंधी चाचा के पिता जी को जोरों से डांट रहे थे क्यों कि वह दहलीज(दरवाजे के बिल्कुल बाहर) में बैठे खाना खा रहे थे,।
वह दलित समुदाय से है और दरवाजे में बैठने और खाना खाने में जहाँ उनको कोई इजाजत नही देता उसके लिए उन्हें इतना अपमान सहना पड़ रहा है तब मैं थोड़ा अपने पापा से मन ही मन मे कुंठित(घृणा)की भावना से देखने लगा।
लेकिन कुछ देर में पता चला बात ही इसके पूर्णतः विपरीत थी,
पापा का कहना था कि आप समाज में किसी भी समुदाय से हो, हमारे लिए मायने नही रखता, समाज मे अन्य धर्मों में आपके साथ कैसा भी व्यवहार हो लेकिन यह व्यवहार हमारे धर्म मे नही है कि आप हमारे घर आए और हम आपको खाना खिलाए तो आप अन्य स्थानों की तरह ही यहाँ भी दहलीज में, ज़मीन में बैठ कर खाना खाएं, नही यह हमें मंज़ूर नही.. इससे हमें गुनाह मिलेगा, यह हमारे धर्म मे अनैतिक है.. जब हमने आपको बताया कि आराम से तख्त में बैठ कर जहां सभी बैठते है वही बैठ कर खाना खाइये साथ ही यदि किसी चीज की कमी हो तो बताइए..
लेकिन आप हमारी बात सुन ही नही रहे.. यदि कोई अन्य व्यक्ति हमारे घर आ गया और आपको ऐसे जमीन में बैठ कर खाना खाते हुए देख लिया तो लोग क्या कहेंगे.. की ये जो भाईजान इस्लाम और दीन की बाते करते है उन्ही के घर मे एक व्यक्ति जिसे हीन जाति का माना जाता है वह जमीन में बैठा है और स्वयं ऊपर जगह में.... नही यह सही नही... इससे हमारी और हमारे इस्लाम की बदनामी होगी।
आप कहीं या पूरे गांव में कैसे भी रहे लेकिन हमारे घर मे ऐसी असमानता अमान्य है आप आकर साथ बैठिए..और साथ ही मेरी बात का बुरा लगा हो तो माफ करिए..
पापा की बातें सुनकर कंधी चाचा के पिता जी ने खाना खाया और हमे आशीर्वाद देते हुए भारी पलकों से अपने काम मे वापस चले गए..
पूरी बात का मतलब यही है कि जातिगत भेदभाव से किसी को कोई फायदा नही खास तौर पर ऐसे लोगों से जो हमारे लिए खुद धूप में रहकर हमारी घरों की छाया बनाते है और फिर कुछ लोग अपनी झूठी शान के लिए उन्हें ही उनके द्वारा बनाई गई छांव में आने नही देते.. पापा की उस दिन की बात से मैं भी सामाजिक असमानता को अपने से दूर रखने का प्रयास करने लगा और लगभग सफल रहा...

और हाँ कंधी चाचा मात्र जन्म से हीन जाति में थे लेकिन आज 2020 की तारीख तक उनके द्वारा कोई भी ऐसा कर्म नही किया गया जो उन्हें दूसरों से सामाजिक रूप से अलग करे..
इतनी घटना घटने के बाद मैंने उन दादा से पूछा.. आपसे बोला था फिर भी आप नीचे क्यों बैठे...तब उन्होंने थोड़ा दुखी मन से बताया कि समाज मे हम अछूते है क्यों कि हमारा जन्म अछूतों में हुआ है हम कोई भी काम कर ले.. कैसा भी जीवन जी ले.. लेकिन कुछ लोग हमें पसन्द नही करते..
बोलते है.. कि अब तो हमारी आदत ही हो चुकी है ऐसे दूर रहने की-अगर किसी के पास जाए जो हमसे ऊंची जात का है तो अधर्म लगता है..
✍इमरान
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पिछली कहानी..https://chandlatosatna.blogspot.com/2020/02/2.html
मानसिकता में नकारात्मक ज़हर
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या फिर, समाज को बदलने चले और खुद में ध्यान न दे