प्रकृति माँ
जीवन की अनेकानेक वैज्ञानिक सम्भावनाओ के बीच उपस्थित सहज और प्राकृतिक दृष्टिकोण लुप्त होने के कगार में है। समाजोन्नति उत्तम है लेकिन एक सहज प्राकृतिक परम्परा का विलुप्त होना चिन्ताजनक विषय है। मैं एक कवि होने के नाते यह कह सकता हूँ कि, कविता की सहजता ही उसकी वैज्ञानिकता है। कालक्रम के प्रभाव से प्रत्येक क्षेत्र का रस समाप्त होता जा रहा हैं।
अब हम जैसे आधुनिक,मोबाइल-कम्प्यूटर लेखको को भला क्या पता कि कविताओ से भरी डायरी जब सालो बाद खुलती है तो कविता और डायरी की खुशबु से हृदय मे होने वाले भावों के संचार,एक नये काव्य रचना का कारण बन सकते हैं। बैलगाड़ी, घोडागाड़ी, खच्चर आदि का प्रयोग प्राचीन किताबो मे दब गया,और प्रदूषण रहित धरती भी उन्ही किताबी पन्नों के गर्भ मे छिप गई। लोगों की विद्वता और सफ़लता का परिमाण उनकी चतुरता निश्चित करने लगी। घर के बुजुर्गो के साथ पुराने मानवीय मूल्य भी जर्जर हो गये। सहज और सरल लोग केवल स्वार्थ पूर्ति की सामग्री बन कर रह गये। तुलसीदास की कृति जो कि मानवीय मूल्यों से भरी हुई है,समाज का एक भाग उसे भी स्वार्थवस अथवा जडतावस अमानवीय कह कर संबोधित कर उठा। जैसे हजारों पागलो की सभा मे एक विद्वान की विद्वता पागल बनने मे ही छिपी है, ठीक ऐसे ही बची हुई सहजता को चतुरता का आवरण लेना आवश्यक जान पडने लगा है। दोष केवल पीढी या समय का नही है...
बच्चे तो माँ-पिताऔर समाज के प्रतिबिंब होते है। तो दोष उनका भी है जो बिंब (स्वयम्) के श्रन्गार की जगह दर्पण के प्रतिबिंब को सजा सवार रहे हैं। उन कागजों-पोष्टरो मे पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का विषय लिखा जा रहा है जो स्वयम् प्रदूषण के अंग है। चौबीसो घंटे मोबाइल लिये हुये व्यक्ति मोबाइल न चलाने की सीख दे रहे है,ठीक ऐसे ही जैसे नशे मे डूबा व्यक्ति,शराब न पीने की सीख दे। बुरी से बुरी चीज का सदुपयोग हो सकता है, और अच्छी से अच्छी चीज के दुरुपयोग की सम्भावना है।
यह मानवीय स्वभाव पर निर्भर करता है कि उसे क्या पसंद है। जब 2-4 वर्षीय बच्चा मोबाइल की लत लगा बैठेगा तो वह घर के सयानो से कुछ सीख पायेगा? क्या वो कभी विरासती अनुभव -कहानिया प्राप्त सकेगा? माँ -पिता को यही प्रसन्नता है कि मोबाइल के बाद बच्चा अब किसी अन्य वस्तु के लिये मचलता तो नहीं है। मानव की सहज प्रकृति से ही असहज पर्यावरण का संरक्षण सम्भव है। व्यक्ति की सहजता ही उसकी सफ़लता है, हमे समाज मे एक ही तरह की मशीने नही बनानी जो एक ही तरह काम करे-सोचे-सफ़लता प्राप्त करे। आम का रस बहुत अच्छा होता है ना! रसराज है न वह!!! अब कल्पना करिये प्रत्येक फ़ल का रस आम रस जैसा हो जाये कैसा लगेगा?
वर्तमान समाज कुछ ऐसा ही कर रहा है, अन्य की सफ़लता देख कर सहजता खो रहा है। रस की भिन्नता मे रस का आनंद है।स्वयम् को परिमार्जित करना उत्तम है,उधार की सहजता और सफ़लता मृत्यु ही है। मै जब छोटा था तो घर के सयानो द्वारा अनेकानेक आदर्शपूर्ण कहानियों को सुनने मे रुचि रखता था, और अब भी वो मेरे जीवन की मार्गदर्शक बनी हुई है। जब मुझे नीन्द न आती तो मेरी माँ दो पंक्तियों को गुनगुनाना शुरू करती,और मै उन्हे सुनते सुनते सो जाता..... ना जाने कितने मानवीय मूल्य छिपे थे उन सरल सी दो पंक्तियों में।
उन पंक्तियों मे करूणा,वात्सल्य,प्रकृति सौन्दर्य, मानवीय मूल्य और शिक्षा के बीज छिपे हुये थे। वो दो पंक्ति कुछ ऐसी थीं-
नदिया के तीरे तीरे चरे रे बोकरिया,
पानी सुखा जाय तो मरे रे बोकरिया।
खोजपरक दृष्टिकोण से बहुत कुछ खोजा जा सकता है, अन्यथा यह भी पिछडेपन का चिन्ह ही है। जब हम सहज प्रकृति का स्पर्श न कर सकेगे तब साबुन के प्रचार ही प्रकृति माँ का स्पर्श देगे। अपने सहज मानवीय मूल्यों को जीवित रखना ही जीवन हैं ।
✍सागर कृष्ण & 📖शब्द-शिल्पी
Wait_for_next....
https://chandlatosatna.blogspot.com/2020/03/dream-with-close-eyes-and-open-mind.html?spref=tw
जीवन की अनेकानेक वैज्ञानिक सम्भावनाओ के बीच उपस्थित सहज और प्राकृतिक दृष्टिकोण लुप्त होने के कगार में है। समाजोन्नति उत्तम है लेकिन एक सहज प्राकृतिक परम्परा का विलुप्त होना चिन्ताजनक विषय है। मैं एक कवि होने के नाते यह कह सकता हूँ कि, कविता की सहजता ही उसकी वैज्ञानिकता है। कालक्रम के प्रभाव से प्रत्येक क्षेत्र का रस समाप्त होता जा रहा हैं।
अब हम जैसे आधुनिक,मोबाइल-कम्प्यूटर लेखको को भला क्या पता कि कविताओ से भरी डायरी जब सालो बाद खुलती है तो कविता और डायरी की खुशबु से हृदय मे होने वाले भावों के संचार,एक नये काव्य रचना का कारण बन सकते हैं। बैलगाड़ी, घोडागाड़ी, खच्चर आदि का प्रयोग प्राचीन किताबो मे दब गया,और प्रदूषण रहित धरती भी उन्ही किताबी पन्नों के गर्भ मे छिप गई। लोगों की विद्वता और सफ़लता का परिमाण उनकी चतुरता निश्चित करने लगी। घर के बुजुर्गो के साथ पुराने मानवीय मूल्य भी जर्जर हो गये। सहज और सरल लोग केवल स्वार्थ पूर्ति की सामग्री बन कर रह गये। तुलसीदास की कृति जो कि मानवीय मूल्यों से भरी हुई है,समाज का एक भाग उसे भी स्वार्थवस अथवा जडतावस अमानवीय कह कर संबोधित कर उठा। जैसे हजारों पागलो की सभा मे एक विद्वान की विद्वता पागल बनने मे ही छिपी है, ठीक ऐसे ही बची हुई सहजता को चतुरता का आवरण लेना आवश्यक जान पडने लगा है। दोष केवल पीढी या समय का नही है...
बच्चे तो माँ-पिताऔर समाज के प्रतिबिंब होते है। तो दोष उनका भी है जो बिंब (स्वयम्) के श्रन्गार की जगह दर्पण के प्रतिबिंब को सजा सवार रहे हैं। उन कागजों-पोष्टरो मे पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का विषय लिखा जा रहा है जो स्वयम् प्रदूषण के अंग है। चौबीसो घंटे मोबाइल लिये हुये व्यक्ति मोबाइल न चलाने की सीख दे रहे है,ठीक ऐसे ही जैसे नशे मे डूबा व्यक्ति,शराब न पीने की सीख दे। बुरी से बुरी चीज का सदुपयोग हो सकता है, और अच्छी से अच्छी चीज के दुरुपयोग की सम्भावना है।
यह मानवीय स्वभाव पर निर्भर करता है कि उसे क्या पसंद है। जब 2-4 वर्षीय बच्चा मोबाइल की लत लगा बैठेगा तो वह घर के सयानो से कुछ सीख पायेगा? क्या वो कभी विरासती अनुभव -कहानिया प्राप्त सकेगा? माँ -पिता को यही प्रसन्नता है कि मोबाइल के बाद बच्चा अब किसी अन्य वस्तु के लिये मचलता तो नहीं है। मानव की सहज प्रकृति से ही असहज पर्यावरण का संरक्षण सम्भव है। व्यक्ति की सहजता ही उसकी सफ़लता है, हमे समाज मे एक ही तरह की मशीने नही बनानी जो एक ही तरह काम करे-सोचे-सफ़लता प्राप्त करे। आम का रस बहुत अच्छा होता है ना! रसराज है न वह!!! अब कल्पना करिये प्रत्येक फ़ल का रस आम रस जैसा हो जाये कैसा लगेगा?
वर्तमान समाज कुछ ऐसा ही कर रहा है, अन्य की सफ़लता देख कर सहजता खो रहा है। रस की भिन्नता मे रस का आनंद है।स्वयम् को परिमार्जित करना उत्तम है,उधार की सहजता और सफ़लता मृत्यु ही है। मै जब छोटा था तो घर के सयानो द्वारा अनेकानेक आदर्शपूर्ण कहानियों को सुनने मे रुचि रखता था, और अब भी वो मेरे जीवन की मार्गदर्शक बनी हुई है। जब मुझे नीन्द न आती तो मेरी माँ दो पंक्तियों को गुनगुनाना शुरू करती,और मै उन्हे सुनते सुनते सो जाता..... ना जाने कितने मानवीय मूल्य छिपे थे उन सरल सी दो पंक्तियों में।
उन पंक्तियों मे करूणा,वात्सल्य,प्रकृति सौन्दर्य, मानवीय मूल्य और शिक्षा के बीज छिपे हुये थे। वो दो पंक्ति कुछ ऐसी थीं-
नदिया के तीरे तीरे चरे रे बोकरिया,
पानी सुखा जाय तो मरे रे बोकरिया।
खोजपरक दृष्टिकोण से बहुत कुछ खोजा जा सकता है, अन्यथा यह भी पिछडेपन का चिन्ह ही है। जब हम सहज प्रकृति का स्पर्श न कर सकेगे तब साबुन के प्रचार ही प्रकृति माँ का स्पर्श देगे। अपने सहज मानवीय मूल्यों को जीवित रखना ही जीवन हैं ।
✍सागर कृष्ण & 📖शब्द-शिल्पी
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Comments
प्रकृति माँ : NATURE_ https://chandlatosatna.blogspot.com/2020/03/nature.html#.XnzWmhwbubE.whatsapp
NEw blog...Go and check..About nature..
Kuki desh sath chal rha h
Aur desh me problem bhi h jisse log Mar the h
How you think?
Lekin aiso wo cheej jo human being ke liye negative ya unhealthy hai .Wo buri hai..